Translation of an earlier article on Purusharthas by Sri Shailendra jee. Published here with humble thanks.
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हालाँकि पुरुषार्थ की मौलिक परिभाषा के लिये कुछ ही मूल स्रोत ग्रंथ उपलब्ध हैं जिसके आधार पर पुरुषार्थ की अवधारणा का विस्तृतविवेचन किया जा सके पर फिर भी अधिकांशतः “वास्तविक” हिंदूओं में इसकी समझ पाई जाती है(और “लिबरलों” उतनी हीनासमझी)!
बादरायण कृत विष्णु रहस्य वर्तमान में उपलब्ध उन कुछ गिने चुने स्रोत ग्रंथों में से एक ग्रंथ है जो पुरुषार्थ की और इससे संबद्ध अन्यधारणाओं का गहराई में जा कर विस्तृत विवेचन और अर्थ समझाने में सहायक है।
निम्नलिखित प्रयास “विष्णु रहस्य” के अनुसार पुरुषार्थ और इससे जुड़ी अन्य अवधारणाओं के निरूपण का एक प्रयास है।
पुरुषार्थ
विष्णु रहस्य के अडतालीसवें अध्याय में मेधातिथी और सूत के बीच हुआ संवाद हमें पुरुषार्थ की अवधारणा के बारे अद्भुत अंतर्दृष्टिप्रदान करता है।मेधातिथि सूत से अनुरोध करते हैं कि सूत उन्हें पुरुषार्थ की परिभाषा और अवधारणा समझायें जिसके उत्तर में सूत कहतेहैं !
इष्टत्वात् सर्वजन्तूनां प्रार्थ्यमाना यतश्च तैः |
ततस्ते पुरुषार्था स्युर्दृष्टादृष्टेष्टहेतवः ||
हर जीव कुछ न कुछ इच्छा करता है और जिसकी प्राप्ति हेतु प्रार्थना भी करता है ।पुरुषार्थ वह साधन है जिससे जीव दृष्ट और अदृष्टदोनों अभीष्ट प्राप्त करता है।इसलिये पुरुषार्थ वह साधन है जिसके लिये हर जीव इच्छा और प्रार्थना करता है।शब्द “पुरूष” का यहाँस्पष्ट रूप से शब्द “नर” से कोई संबंध नहीं । इस संदर्भ में हर चेतन जीव पुरुष है।
सूत आगे चल कर प्रतिपादित करते हैं कि पुरुषार्थ वह साधन है जिससे इष्ट की प्राप्ति होती है।इष्ट यहाँ दो अर्थों में प्रयुक्त हो सकता है“इच्छित” अथवा वह जो व्यक्ति के लिये “उत्तम” हो।
दुःखहानिः सुखप्राप्तिरितीष्टं द्विविधं मतम् |
इष्ट के दो मुख्य गुण है ; दुख: हानि और सुख प्राप्ति ।
पुरुषार्थ से दो प्रकार के इष्ट प्राप्त होते हैं दृष्ट और अदृष्ट ।
दृष्ट इष्ट वह इष्ट है जिसका लाभ हम इस संसार में तुरंत अनुभव कर सकते है ।यह वह लाभ हैं जो हमारीइंद्रियाँ को ग्राह्य हैं अथवा जोमन से ग्राह्य हो ।
अदृष्ट इष्ट वह इष्ट है जिसका लाभ हम बहुत बाद में अधिकांशतः स्वर्ग में या इस संसार से बहिर्गमन पश्चात ही प्राप्त कर सकते हैं ।
इसलिये पुरुषार्थ वह है जो हमारे दुख: दूर कर सकता सुख प्रदान कर सकता है, है इस संसार में और उसके बाद भी।
पुरुषार्थ के प्रकार
धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति चतुर्विधः
पुरुषार्थ के चार प्रकार होते हैं। धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष ।
आगे चल कर सूत और चारों प्रकार के पुरुषार्थ से प्राप्त इष्ट के आधार पर इन चार प्रकार के पुरुषार्थों में अंतर की विवेचना करते हैं ।
धर्म (और अधर्म)
धर्म वह पुरुषार्थ है जो अधिकांशतःअदृष्ट इष्ट और कुछ दृष्ट इ्ष्ट प्रदान करता है ।अर्थात् धर्म का अधिक लाभ शरीर त्याग के पश्चातस्वर्ग तथा अन्य लोकों में प्राप्त होता है और कुछ भाग ही इस जन्म (यानि भू लोक) में प्राप्त होता है ।
इष्टफल की प्राप्ति की दृष्टि से धर्म के दो मूल प्रकार है; तप और दान ।कोई भी सत्कर्म जो हमारी देह, इंद्रियों एवं मन से किया गया होवह तप है ।
इसलिये धर्म पालन का एक युक्ति है मन, वचन और कार्य से निरंतर सत्कर्म करना ।
धर्म पालन की दूसरी युक्ति दान के भी दो प्रकार हैं।मूल्यवान वस्तुयें उनको देना जो इसके पात्र हों अथवा देवताओं के लिये यज्ञ औरहोम द्वारा भेंट चढ़ाना।
धर्म पालन के लाभ अनित्य हैं चिरकालिक नहीं कालांतर में इन लाभों का ह्रास होता है ।
अधर्म से दो प्रकार की हानि होती है। इच्छित का न मिलना और दुख: का सामना ।अधर्म के फल भी कुछइस लोक में पर अधिकांशतः: नरक और अन्य नीच लोकों में मिलता है।
इष्टहानिश्च दुःखाप्तिरधर्म फलमीरितम् |
तदपि प्राप्यते जीवैर्भूलोके निरयादिषु ।।
अधर्म भी धर्म की भाँति दो प्रकार का होता है । उस अधर्म का पालन जो शास्त्रों और ज्ञानवान जनो द्वारानिषिद्ध हो।और दूसरा उनधार्मिक अनुष्ठानों का परित्याग जो शास्त्रोक्त है और और परंपरा अनुसार आवश्यक हैं ।
अर्थ और काम
पिछले खंड में हमने देखा कि धर्म वह पुरुषार्थ है जिससे मुख्यत: अदृष्ट फल मिलते हैं।इसके विपरीत अर्थऔर काम वह पुरुषार्थ है जोमुख्यतः दृष्ट फल देते हैं ।अर्थ और काम से मिले लाभ का अनुभव और भोग इस लोक में किया जाता है।
अर्थो हि त्रिविधं प्रोक्तो धनं विद्या यशस्तथा
अर्थ तीन प्रकार के होते हैं धन, ज्ञान और प्रसिद्धि ।
येनार्थेनापि कामेनाप्यदृष्टं जायते फलं |
स धर्मरूपो विज्ञेयो दृष्टं तत्रानुशङ्गिकम् ||
सूत इसके बाद एक बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं।अर्थ और काम के अंतर्गत की कई कुछ क्रियायें ऐसी भीहोती जिनसे अदृष्ट फलमिलते हैं।दूसरे शब्दों में कुछ कार्य जो धन या ज्ञान प्राप्ति के लिये या इच्छा पूर्ति के लिये किये जाते हैं ऐसे भी हैं जिनसे अदृष्ट फलमिलते हैं और जो दूसरे लोकों में ही मिलते हैं।
जब भी ऐसी अर्थ और काम संबंधी गतिविधियाँ होती हैं, तो समझना चाहिए कि इस तरह की गतिविधियों का मूल धर्मही है।
इसलिए, यदि अर्थ और काम के लिये किये गये कार्य धर्म (शास्त्र, परंपरा) के आधार पर किये जाते है, तब इनका लाभ दूसरे लोकों मेंभी मिलता है और हम इस “संसार” में प्रगति कर सकते हैं!
अर्थ और काम के लाभ भी धर्म, की तरह अनित्य (अनन्त) हैं।
मोक्ष
कालतो देशतो वापि ध्रुवं स्थानं तु यद्भवेत् |
तन्मोक्षः प्राप्यते विप्राः सर्वानिष्टनिवृत्तिमत् ||
पहले तीन पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ और काम – के बारे में सामान्य बात यह है कि उनसे प्राप्त लाभ दृष्ट या अदृष्ट दोनों अनित्य है । इसलोक में अन्य लोकों में भोग होने पर उन लाभों का ह्रास हो जाता है।
दूसरी ओर मोक्ष वह स्थिति है जिसमे व्यक्ति समय या स्थान की सीमाओं के बिना लाभ प्राप्त करता है।मोक्ष के परिणाम हैं नित्य औरशाश्वत हैं।
अक्सर यह अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा कार्य धर्म के अंतर्गत और कौन सा कार्य मोक्ष के अंतर्गत आयेगा ।
ऐसे परिदृश्यों में यहाँ दी गई परिभाषा बहुत उपयोगी है।
ऐसे कर्म जिनके फल अनित्य हैं धर्म के अनुरूप होते हैं।ऐसे कर्म जिनके फल अनन्त (नित्य) हैं वे मोक्ष के अनुरूप होते हैं।
सात्विक जीव (आत्मा) के लिए, मोक्ष जीव की अंतर्निहित क्षमता के अनुसार सुख का असीम अनुभव है।
मोक्ष दो प्रकार के होते हैं- संमोक्ष और दुर्मोक्ष।
संमोक्ष सात्विक जीवों द्वारा वैकुण्ठ और परमात्मा के अन्य उच्च लोकों की प्राप्ति है।दूर्मोक्ष तमस जीवों द्वारा अंधतमिस्र, तमिस्र औरअन्य लोकों की प्राप्ति है।
मोक्ष को प्राप्त करने वाले कभी भी जन्म और मृत्यु के चक्र में नहीं लौटते हैं।
श्री कृष्णार्पणमस्तु
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